शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

"धर्मशास्त्रो के अनुसार किसी भी प्राणी या संस्था के लिए उपकार करना ही मानवधर्म है"पूजा है, उसे अपना कर शाक्त समाज के सदस्य बने .......???

"धर्मशास्त्रो के अनुसार किसी भी प्राणी या संस्था के लिए उपकार करना ही मानवधर्म है"
........ शास्त्रबिधि को छोड़कर स्वेक्षाचरण करने वाले मानव न तो सुख को,न मोक्षको और न परम गती कोही प्राप्त करते है, यह सब जानते हुए भी आज का मानव परोपकार के बजाए परपीड़ा मे इतना रुचि क्यो ले रहा है यह हम शक्ति उपासको के लिए एक दुविधा भरा महा प्रश्न है
यहाँ प्रस्तुत है कुछ प्रमाणः-
(1) सत्यनारायण ब्रत कथा मे बिष्णु भगवान के प्रसन्नता के लिए चार से अधिक कदली स्तम्भो का पुजन कर उसे रोपित करने का विधान है 
. . आज शास्त्रीय मत के ठीक उलट हरे कदली स्तम्भो को पूजन मण्डप को सजाने के बहाने काटने का रिवाज सा चल पड़ा है,
(2)"उच्चैःपाठं निषिद्धं स्यात्त्वराँ च परिवर्जयेत"
. . . जबकी शास्त्र बर्जित लाउडस्पीकर, ध्वनि बिस्तारक व सिरकम्पी ध्वनि संसाधनो का प्रयोग आज हिन्दुओ के परम्परागत रिवाज जैसा बनते जा रहा है 
(3) पूजन सामग्री या चढ़ावन मे "अक्षत" (स्वेततिल) के स्थान पर "तण्डूल" (चावल) का प्रयोग होता है जबकी यह बिशर्जन समाग्री है
(4)पुजन समाग्री को लांघना या पैर से स्पर्श करना महा पाप है
जबकी आज के तमाम मंदिरो मेँ जल-चावल- प्रशाद-फुल-बेलपत्रादीके दुरुपयोग के चलते इसे जानते हुए भी उलंघन करना हमारी बिवशता बन गई है
(5)मंदिरो मे प्रत्येक पुजन कार्यो के लिए एक-एक स्थल कौड़ी-कौड़ी संग्रह से निर्मित तथा सञ्चालित होते है
आज वहाँ कइ आयोजक आयोजन शुल्क दिए ही बिना सम्पन्न कराना अपनी प्रतिष्ठा समझ रहे है
(6)शास्त्रो के मतानुशार "हमारा मन व दिल ही मंदिर है"उसे गंदा न होने दे
आनियंत्रित व स्वेक्षाचारी पुजा पद्यती के चलते हम नित्य ही उन्हे नुकशान तथा गंदगी का सैलाब भेँट कर आर्थिक क्षतीभी पहुँचा रहे है
(7) शास्त्रों के मतानुसार"बाँस ब कोयला के धुँआ से पुजन स्थल भी अपबित्र हो जाता है"
अतः इनका प्रयोग हवनादी पुजन मे भी बर्जित है
आज तमाम हिन्दु अपने देवताओ के समक्ष इस पुजा बर्जित समाग्री का "अगरबत्ती " का प्रयोग रिवाज के रुपमे कर रहे है (8)चैत्रादी नवरात्रि मे मंदिर की सफाई व श्रृंगार के बजाए उसे गन्दा व नुकसान पहूँचाने के भागिदार कही आपभितो नही बन रहे है??

कैप्शन जोड़ें

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें